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असम NRC| बड़ी थी मुसीबत या करनी थी सिर्फ सियासत?, The Quint

The Quint
03 September 2019

5 साल का वक्त.. 1200 करोड़ से ज्यादा का खर्च…करीब 62 हजार सरकारी अफसरों की मेहनत.. और नतीजा असम की कुल आबादी के 6% से भी कम. यानी आसान शब्दों में कहें तो खोदा पहाड़ निकली चुहिया. मैं बात कर रहा हूं NRC यानी ‘Needless Register of Citizens…’ ओह माफ कीजिएगा National Register of Citizens की, जिसे लेकर आजकल असम में बवाल मचा है.

कथा जोर गरम है..

असम में नागरिकता रजिस्टर की आखिरी लिस्ट आने के बाद सूबे के लोगों से लेकर सियासी पार्टियों तक में हड़कंप है. आखिरी लिस्ट से मतलब ये है कि इस लिस्ट में जिसका नाम नहीं है वो असम का या भारत देश का नागरिक नहीं है, बांग्लादेशी ‘घुसपैठिया’ है. हालांकि अब भी उन लोगों के पास अपील के लिए 4 महीने का वक्त है लेकिन वो बात बाद में.

आलम-ए-बदहवासी

पहले बात सियासी पार्टियों में मचे हड़कंप की. कांग्रेस और ऑल इंडिया स्टूडेंट यूनियन जैसी विपक्षी पार्टियों को तो छोड़ो असम में खुद बीजेपी के नेता एनआरसी की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं. और इसकी वजह है भारी गड़बड़ियां.

1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध लड़ चुके ब्रिगेडियर का नाम गायब है. कारगिल की जंग लड़ चुके रिटायर्ड जेसीओ का नाम गायब है. और तो और असम की सियासी पार्टी एआईयूडीएफ के विधायक अनंत कुमार और उनके बेटों का नाम नदारद है. एक ही घर में पिता का नाम है बच्चों का नहीं. कहीं बच्चों का है माता-पिता का नहीं. और ऐसे लोगों की तादाद हजारों में है.

  • तो क्या एक ऐसा मुद्दा जिसने देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को कटघरे में खड़ा कर दिया
  • जिसे असम के कल्चर, राज्य की संस्कृति पर खतरा बताकर गैरजरूरी हल्ला किया गया
  • जिसे सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाकर बीजेपी ने सूबे की सत्ता हासिल कर ली

वो मुद्दा एक फर्जी एक्सरसाइज था?

मंशा क्या थी?

अगर नतीजा यही आना था तो फिर इसकी मंशा क्या थी?

  • क्या मंशा ये थी कि बाहरी लोगों के खिलाफ गुस्से को मुसलमानों के खिलाफ गुस्से में तब्दील करके उसका सियासी फायदा उठाया जाए?
  • क्या यही वजह है कि दिल्ली चुनाव से पहले वहां के बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी राजधानी में एनआरसी लागू करने की बात कर रहे हैं?
  • बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष बंगाल में एनआरसी की मांग कर रहे हैं.
  • पंजाब के बीजेपी नेता विनीत जोशी अपने राज्य के लिए वही मांग कर रहे हैं.

माहौल बनाया गया कि बांग्लादेशी घुसपैठिये असम की संस्कृति को तहस-नहस कर रहे हैं. वो असमियों के हिस्से की सुविधाएं हड़प रहे हैं. क्या असम की संस्कृति इतनी कमजोर है कि वो कुल आबादी के महज 6 फीसदी लोगों से बिगड़ जाएगी? या फिर 6 फीसदी लोग बाकी 94 फीसदी लोगों की कितनी सुविधाएं हड़प लेंगे?

और 6 फीसदी क्यों? हालात तो ये है कि घुसपैठियों की तादाद 19 लाख से गिरकर और नीचे आने वाली है.

हमाम में सब नंगे

वैसे कसूर सिर्फ बीजेपी का ही क्यों निकाला जाए?

  • यूनाइटेड फ्रंट सरकार में गृह मंत्री रहे इंद्रजीत गुप्ता ने 6 मई 1997 को कहा था कि देश में एक करोड़ अवैध अप्रवासी हैं.
  • 15 जुलाई 2004 को यूपीए सरकार में गृह राज्य मंत्री रहे श्रीप्रकाश जायसवाल ने संसद में कहा था कि देश में एक करोड़ 20 लाख से ज्यादा अवैध अप्रवासी हैं जिनमें से 50 लाख अकेले असम में हैं.
  • देश के मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह 2019 के चुनाव प्रचार के दौरान अक्सर दोहराते थे कि बीजेपी बांग्लादेशी घुसपैठियों को देश से भगाएगी.

यानी सियासत के इस हमाम में सब नंगे हैं.

वैसे बरसों से चल रही इस पूरी कवायद ने तेजी पकड़ी साल 2015 में जब सुप्रीम कोर्ट ने इसकी मॉनिटरिंग शुरू की. तो क्या देश की सबसे बड़ी अदालत भी इस मामले में भावनाओं में बह गई थी?

NRC का अर्थशास्त्र

26 जून 2019 तक असम के कुल 41 लाख 10 हजार 169 लोग एनआरसी से बाहर थे. इन तमाम लोगों का पक्ष जानने के लिए पूरे राज्य में फॉर्नर ट्रिब्यूनल्स बनाए गए. सुनवाई के लिए लोगों को दस्तावेज जुटाने पड़े. वकीलों की मदद लेनी पड़ी.

दिल्ली के RIGHTS & RISKS ANALYSIS GROUP ने एक रिपोर्ट जारी कर NRC का अर्थशास्त्र बताया है. रिपोर्ट के मुताबिक फॉर्नर ट्रिब्यूनल्स की सुनवाई, वकीलों की फीस वगैरह पर एनआरसी से बाहर हुए हर इंसान ने 19 हजार 65 रुपये खर्च किए. अब इसे 41,10,169 से गुणा किया जाए तो कुल खर्च हुआ 7,836 करोड़ (78,360,371,985) रुपये. और ये सब उस राज्य में हुआ जिसकी प्रति व्यक्ति आय देश की प्रति व्यक्ति आय से करीब 35 फीसदी कम है.

NRC से बाहर लोगों के पास विकल्प?

एनआरसी से बाहर लोग फॉर्नर ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटा सकते हैं. अगर फॉर्नर ट्रिब्यूनल ने उन्हें विदेशी माना तो उन्हें फौरन डिटेंशन कैंप में ले लिया जाएगा. डिटेंशन कैंप से निकलने के ले वो लोग गुवाहाटी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की शरण ले सकते हैं. आखिरकार कोर्ट ही ये फैसला कर सकता है कि आप भारतीय हैं या विदेशी नागरिक.

अभी ‘दिल्ली’ दूर है

यानी इस पूरी प्रक्रिया में अभी कई साल लग सकते हैं. और आखिर तक ‘घुसपैठियों’ की संख्या घटकर कितनी हो चुकी होगी- भगवान जाने. लेकिन तब तक ‘अतिथि देवो भव’ की फिलॉसफी वाले इस देश में सियासत का रजिस्टर वोटरों की संख्या काफी बढ़ा चुका होगा.

आखिर में एक सवाल जो हैदराबाद में NALSAR यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के वाइस चांसलर फैजान मुस्तफा ने अपने एक वीडियो में उठाया- बांग्लादेश से आए बौद्ध चकमा शरणार्थियों के समर्थन में National human Right Commission ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. क्या बांग्लादेशियों के मामले में वो ऐसा करेगा?

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